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छूटते हाथ

उसके कदमों से ताल न मिला सका मैं। उसके अंदाज में शायद न जी सका मैं।। तो छूट रहा है हाथ अब मेरा उसके हाथ से। और जिंदगी से उसकी ओझल हो रहा हूँ मैं।।

कितने सार्थक हो रहे हैं उत्तराखंड निर्माण के मायने

......बोल पहाड़ी हल्ला बोल, कोदा, झंगोरा खाएंगे उत्तराखण्ड बनाएंगे जैसे नारों की गूंज उस वक्त सुनी जब आंदोलनों के मायने समझ आने लगे थे, लोग सुबह प्रभात फेरी निकालते थे, हर दूसरे तीसरे दिन बाजार बंद, स्कूल की घण्टी कभी भी छुट्टी की घोषणा कर देती थी। क्या बुजुर्ग, क्या महिला, क्या दुकानदार, क्या कर्मचारी सब के सब एक सुर में उत्तराखण्ड बनाने की मांग कर रहे थे। आंदोलन तेज जो रहा था। युवा आगजनी, विरोध और तोड़फोड़ पर आमादा थे। राज्य नहीं तो चुनाव नहीं जैसे आंदोलन उग्रता के साथ चल रहे थे। बहुत भारत-तिब्बत सीमा के पहले गांव से जंतर मंतर तक गढ़वाली और कुमाउनी बोली के बोलने वाले राज्य मांग रहे थे।  मांग के मूल में था पहाड़ी राज्य की जरूरतों के हिसाब से लखनऊ और दिल्ली की नीतियां फिट नहीं थी। हमारे संसाधन हमारे काम नहीं आ रहे थे। पहाड़ का पानी और जवानी दो जून की रोटी के लिये मैदान जा रहे थे।  लड़ाई थी पलायन रोकने की, रोजगार सृजन की, विकास की पर क्या 22 बरस के हुए राज्य में ये हुआ? ये यक्ष प्रश्न खड़ा है। पहाड़ के पलायन को लेकर आयोग का गठन हुआ ऑफिस मैदान में, क्योंकि पलायन के लिये फिक्रमन्द लोगों को पहाड़ रा

...तो क्या गांधी के ग्राम स्वराज की ओर लौट रही कांग्रेस?

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.. गांधी जयंती मनाने को लेकर लंबे अरसे से बहुत उत्साह जैसा कुछ दिखाई नहीं देता!  अब जँहा आम लोगों के लिये 2 अक्टूबर का दिन छुट्टी का दिन होता है। वंही सरकारी कार्यालयों में काम करने वालों और सामाजिक जीवन में दिख रहे लोगों के लिए इस पर्व पर "भारत छोड़ो आंदोलन" के अगुवा रहे "मोहन दास करम चंद गांधी" के सिद्धांतों को मन या बेमन से याद करने की बाध्यता सी रह गयी है... ऐसा भी नहीं कि देश के शत-प्रतिशत लोग गांधी दर्शन को बीते दिनों की बात मानते हों, लेकिन अधिसंख्य लोग ऐसे हैं। बल्कि बड़ी संख्या तो "गांधी दर्शन" को पढ़े बिना ही सुनी सुनाई बातों पर अपनी राय कायम किये हुए हैं। जो गांधी के भारत में (जँहा मृत्यु के बाद भी अपने पूर्वजों के नाम पर कौवों को भोजन करवाने और पितृपक्ष में गोलोकवासी परिजनों में आस्था के चलते पूजन की परम्परा के निर्वहन की विशिष्ठ संस्कृति को पोषित करता हो।) गांधी की प्रासांगिकता को परिलक्षित करता है। .... हाँ ये हो भी क्यों नहीं! जब गांधी के सिद्धांतों पर राजनीति करने का दावा करने वाले ही जब छुट्टी बिताने के नाम पर गांव जाने के बजाय व

रोमांच, कोतुहल, सौंदर्य और साहसिक पर्यटन का खजाना : डियारिसेरा बुग्याल

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चमोली जिला साहसिक पर्यटन के लिए खजाने से कम नहीं है। लेकिन जानकारी के अभाव में आज भी कई गुमनाम पर्यटक स्थल आज भी पर्यटकों की पहुंच से दूर हैं। ऐसा ही एक पर्यटक स्थल है जोशीमठ ब्लॉक के करछौं गांव के शीर्ष पर स्थित डियारिसेरा। रोमांच, कौतूहल ओर प्राकृति सौंदर्य से लबरेज डियारीसेरा बुग्याल साहसिक पर्यटन के लिए बेहद मुफीद स्थान है। डियारिसेरा कराछौं गांव से 8 किमी की दूरी पर 5 हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। डियारीसेरा बुग्यालों में खिले उच्च हिमालयी फूल जहां आकर्षण का केंद्र हैं। वहीं बुग्याल में स्वतः होने वाले धान और मडुवे की फसल और प्राकृतिक रुप से बनी गूल (नहरें) पर्यटकों के कौतूहल और रोमांच को दोगुना करने वाली है। स्थानीय ग्रामीण इसे धार्मिक मान्यता से जोड़ते हुए यहां होने वाले धान और मंडुवे की खेती वन देवियां (परियां) द्वारा किये जाने की बात कहते हैं। बुग्याल में स्थित हनुमान ताल और भूमियाल मंदिर क्षेत्र में देवताओं की उपस्थित का अहसास करते हैं। डियारिसेरा के पैदल रास्ते से हिमालय की नंदा घुंघुटी, त्रिशूल, नंदा देवी, चौखम्भा, बंदरपुंछू, सप्तकुण्ड पर्वत श्रृखलाओं का दीदार

इतिहास के पन्नों में सिमटता हाट गांव

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1059 ई. में आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा बंगाल के गौण ब्राहमणों (हटवाल) की बसवाट से बसा हाट गांव अब देश और राज्य में बिजली की जरुरत को पूरा करने के लिये इतिहास के पन्नों में सिमट जायेगा।  हाट गांव के इतिहास में सिमटने की ये कहानी अलकनंदा नदी पर वर्ष 2003 से निर्माणाधीन 444 मेगावाट विष्णुप्रयाग-पीलकोटी जल विद्युत परियोजना के निर्माण कार्य शुरु होने के साथ शुरु हुई। 4 हजार करोड़ की इस योजना के लिये हेलंग से पीपलकोटी तक 13.4 किलोमीटर की टनल का निर्माण कर अलकनंदा नदी के पानी को टनल से गुजार कर हाट गांव में 111 मेगावट की 4 टर्बाइनों के जरिये 444 मेगावाट बिजली का उत्पान करने की योजना तैयार हुई। परियोजना के निर्माण के लिये शासन, प्रशासन और परियोजना का निर्माण करने वाली कंपनी टीएचडीसी इंडिया लि. की ओर से कई दौर की वार्ता की गई और गांव की जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया। जिसके बाद 2021 के सितम्बर माह तक 140 परिवारों में से 112 परिवार अन्यत्र बसा दिया गया।  लेकिन कुछ परिवारों ने कुछ विस्थापन के लिये सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, सामुदायिक विकास के जैसी शर्तों को पूरा करने तक गांव से

म्याळी बांद...

मेरी वा म्याळी बांद, छुयों की सजोळी सी। जेठ का ध्ड़यांना घाम, छमटों कु पांणी सी।। रतन्याळी आँखि वींकि, ज्वोन कि उजयाली सी। लम्बी तड़तड़ी च गाती, खैर की गंजयाळी सी।। ह्यूंद का  दिनों  मां  घाम  की निवाती सी। औंसी की रात मां दिवों की उज्याळी सी।। ज्वानों तैं च मायाजाळ, दानों की दवेई सी। धांण की  पड्याळ मां च्या की तुराक सी।। रतबयाँणी उजयाली जनी, कतिगा का मौ सी। माना या न तुम वा छै बीन्सरी का स्विंडां सी।। तड़तड़ी उकाळी का बटा, बिसोंणें कि धार सी। मुलमुला हैंसदी मुखड़ी वींकि, बुरांशे टकोरी सी।। माया कु जिबाळ छै वा डंडों की आंछरी सी। मेरी वा म्याळी बांद, छुयों की सजोळी सी।।

धरती चिपको वाली......

सुलग रही है कैसे देखो, धरती! चिपको वाली गौरा की। द्युतसभा की पांचाली लगती, धरती! चिपको वाली गौरा की।। धृतराष्ट्र खड़े मौन साधकर, पांडव हैं मुंह ताक रहे। कौन बचाये लाज धरा की, एक दूजे की राह तके।। मौन सभी हैं इस सूरत पर, चिपको वाली धरती की। मौन यँहा है क्रांतिवीर, जो कसमें खाते गौरा की।। गौरा की सन्तानें चुप हैं, चुप साधे सिरमौर यँहा। दवानल वन निगल रहै हैं, अब वनवासी छिपे कँहा।। हैं कौन सभा के दुशासन, कौन है शकुनी-दुर्योधन।। हर शख्स सत्य से अवगत है। लेकिन कुचल रहा वो अंतर्मन।।