......बोल पहाड़ी हल्ला बोल, कोदा, झंगोरा खाएंगे उत्तराखण्ड बनाएंगे जैसे नारों की गूंज उस वक्त सुनी जब आंदोलनों के मायने समझ आने लगे थे, लोग सुबह प्रभात फेरी निकालते थे, हर दूसरे तीसरे दिन बाजार बंद, स्कूल की घण्टी कभी भी छुट्टी की घोषणा कर देती थी। क्या बुजुर्ग, क्या महिला, क्या दुकानदार, क्या कर्मचारी सब के सब एक सुर में उत्तराखण्ड बनाने की मांग कर रहे थे। आंदोलन तेज जो रहा था। युवा आगजनी, विरोध और तोड़फोड़ पर आमादा थे। राज्य नहीं तो चुनाव नहीं जैसे आंदोलन उग्रता के साथ चल रहे थे। बहुत भारत-तिब्बत सीमा के पहले गांव से जंतर मंतर तक गढ़वाली और कुमाउनी बोली के बोलने वाले राज्य मांग रहे थे। मांग के मूल में था पहाड़ी राज्य की जरूरतों के हिसाब से लखनऊ और दिल्ली की नीतियां फिट नहीं थी। हमारे संसाधन हमारे काम नहीं आ रहे थे। पहाड़ का पानी और जवानी दो जून की रोटी के लिये मैदान जा रहे थे। लड़ाई थी पलायन रोकने की, रोजगार सृजन की, विकास की पर क्या 22 बरस के हुए राज्य में ये हुआ? ये यक्ष प्रश्न खड़ा है। पहाड़ के पलायन को लेकर आयोग का गठन हुआ ऑफिस मैदान में, क्योंकि पलायन के लिये फिक्रमन्द लोगों को पहाड़ रा